उस शख़्स के आत्मविश्वास का अंदाज़ा लगाइए जो यह फ़ैसला कर ले कि मैं तो शायर ही बनूंगा। और वो भी उस दौर में जब शायर का सम्मान तो था पर उसके पास पैसा नहीं होता था। पैसा जो ज़िन्दगी के लिए सबसे ज़रूरी चीज़ समझी जाती है। अब जो शायर आत्मविश्वास से इतना लबरेज़ होगा, वो शेर भी ऐसे ही कहेगा –
कह दो मीर-ओ-गालिब से हम भी शेर कहते हैं,
वो सदी तुम्हारी थी ये सदी हमारी है।
और फिर दुनिया भर में सम्मान और पैसा उसका इंतज़ार करेगा। और सम्मान भी ऐसा वैसा नहीं, अमेरिका की उनको मानद नागरिकता दी गई। यूएस के केंटुकी राज्य के लुईविले शहर के मेयर ग्रेग फिशर ने उन्हें सम्मान के प्रतीक के रूप में शहर की चाबियां सौंपीं। इस शहर को विश्व हैवी वेट बॉक्सिंग चैंपियन मोहम्मद अली किले के नाम से भी जाना जाता है। इसके अलावा देश विदेश की सरकारी व गैरसरकारी महत्वपूर्ण अकादमियों व संस्थाओं के सम्मान उनके नाम हैं। और इसकी लंबी लिस्ट विकी पीडिया पर देखी जा सकती है।
यहां बात मंज़र भोपाली साहब की ही चल रही है। दुनिया का कोई ऐसा देश नहीं जहां मुशायरा होता हो और वहां मंजर भोपाली साहब न बुलाए गए हों। और एक बार नहीं, कई कई बार। जैसे अमेरिका में ही वो तीस बार से ज़्यादा बार बुलाए गए हैं। खाड़ी के देशों में भी तीस बत्तीस बार बुलाए गए हैं। पांच छह बार से कम तो वो किसी देश में गए ही नहीं। उनके बारह काव्य संग्रह है। इनमें से कई उर्दू हिंदी दोनों भाषाओं में छपे हैं। कई तो हिन्दुस्तान- पाकिस्तान दोनों देशों से छपे हैं।
मंज़र भोपाली साहब का जन्म महाराष्ट्र के अमरावती ज़िले के अचलपुर इलाक़े में 29 दिसम्बर, 1959 को हुआ। दादा मीर खैरात अली जाने माने हकीम और इलाके के रईस थे। ज्वाइंट फैमिली थी, किसी तरह की कोई दिक्कत नहीं थी। पुराने रईसों के यहां साहित्यकारों और विशेषकर शायरों का जमावड़ा हुआ ही करता था। वे लोग खुद भी शायरी करते थे, या कम से कम शेर को समझ कर लुत्फ़ अंदोज होने की सलाहियत रखते थे।
अपने चार भाई बहनों में मंज़र साहब तीसरे नंबर पर हैं। शुरू की पढ़ाई के बाद चारों की आगे की शिक्षा का सवाल उठा तो मंज़र साहब के पिता अब्बास अली साहब ने भोपाल शिफ्ट होने की सोची। यहां मंज़र साहब के मामू रहते थे। इंटर, डिग्री कालेज क्या विश्वविद्यालय भी मौजूद था। बहरहाल छह लोगों का परिवार भोपाल आ गया। और ज़िन्दगी ज़ीरो से शुरू हुई। भाइयों को पढ़ाई के साथ कहीं न कहीं काम भी करना पड़ा। मां ने ट्यूशन पढ़ाने शुरू किए। पिता को पोस्ट ऑफिस में बाबू की नौकरी करनी पड़ी। मंज़र साहब का यह शेर संभवतः इसी दौर की तरजुमानी करता है –
इस तरह गुज़रा है बचपन कि खिलौने न मिले,
और जवानी में बुढ़ापे से मुलाक़ात हुई।
कुछ ही वर्षों में ज़िन्दगी पटरी पर आने लगी और अंततः पिछड़े और गरीब बच्चों को आधुनिक तालीम देने के सपने के साथ मां का स्कूल अस्तित्व में आया। चारों बच्चों ने उच्च शिक्षा प्राप्त की। बड़े भाई दूरदर्शन में अधिकारी रहे। मंझले भाई बहुत नामी फ़ोटो जर्नलिस्ट रहे। बहन टीचर और मंज़र साहब ने तो घोषणा कर ही दी थी कि मैं शायर ही बनूंगा, और बन भी गए।
वैसे तो शायर जन्मजात होता है पर मंज़र साहब शायरी के प्रति आकर्षित भी बहुत रहे। दादा के यहां तो शायरों का जलवा देखा ही था, अपने घर पर भी शायरों का रुतबा देखा। उन्हें लगता था कि शायर तो इस दुनिया का आदमी हो ही नहीं सकता। मस्त सा, अजीब हुलिया, सादा तबीयत जैसे सूफ़ी संत। उनके पिता का भी मिज़ाज आख़िर वही था, अपने पिता वाला। मां ताहिरा निकहत चूंकि एजुकेशन के फील्ड में थीं इसलिए उनका रुझान भी शेरो शायरी की ओर था। घर में महफिलें जमती। कैफ भोपाली, शैरी भोपाली, राज़ भोपाली, रजा रामपुरी वगैरा का तो रोज़ हो आना जाना था। अन्य शायर भी आते और मंज़र भोपाली साहब दरियां बिछाने, माइक लगवाने में आगे आगे रहते। रात के दो दो बजे तक महफिलें चलतीं। मंज़र साहब किसी शायर को उसके घर छोड़ने जाते, रास्ते में बातों बातों में वह इन्हें एक मिसरा दे देता कि दूसरा मिसरा लगाओ। अगले दिन जब वो मिसरा लगा कर दिखाते तो वो शायर काग़ज़ फाड़ कर फेंक देता। पर मंज़र साहब हतोत्साहित नहीं होते। लगे रहते। खाना पीना, चाय नाश्ता, खातिरदारी, मान सम्मान और शेर समझने के बाद होने वाली सुखद अनुभूति। दिलो दिमाग को सुकून पहुंचाने वाली नदी में धीरे धीरे तैरने जैसा एहसास उनको बांधे रखता। मतलब भावनाओं और सोच यानि शायरी के भीतर से बाहर आने के लिए बड़ा सकारात्मक माहौल मिलता गया।
मंज़र साहब यों तो चौदह पंद्रह साल की उम्र में शेर कहने लगे थे। पर सत्रह साल की उम्र में उन्होंने मुकम्मल ग़ज़ल कही। तब तक ये सय्यद अली रजा थे। मंज़र नाम दिया रजा रामपुरी ने और चूंकि भोपाल को अपना लिया था, इस लिए नाम में जुड़ गया भोपाली। रजा रामपुरी साहब इनकी मां के स्कूल में अध्यापक थे और इनकी ग़ज़लों का शिल्प देख लिया करते थे। रजा रामपुरी का एक परिचय यह भी है कि वो पद्म विभूषण तबला वादक अहमद जान थिरकुआ के बेटे थे।
ग्रेजुएशन करते करते मंज़र साहब बाकायदा मुशायरों में बुलाए जाने लगे। बरकत उल्लाह विश्वविद्यालय से उर्दू में एमए करने के बाद एक तरह से वो फूल टाइम शायर हो गए। देश भर में एक के बाद एक मुशायरों में जाना, विदेश दौरे और सम्मान का सिलसिला तेज़ी से चल पड़ा।1992 में मंज़र साहब ने माता पिता से कहा कि अब आप लोग हमारी शादी कर दीजिए। चुनांचे रिश्ता ढूंढा गया और बारात बहराइच गई। बारातियों में उस दौर के मशहूर शायर खुमार बाराबंकवी, कृष्ण बिहारी नूर, वली आसी, राहत इंदौरी, सागर खैयामी, मंसूर उस्मानी आदि थे। शहर में बारात की अहमियत के लिए इतने नाम काफ़ी थे और दूल्हा मंज़र भोपाली थे। यानि ससुराल और शहर को गर्व करने के लिए इतना काफ़ी था।
मंज़र भोपाली साहब की पत्नी आज उनकी मां द्वारा स्थापित स्कूल की प्रिंसिपल हैं। इस दंपति के दो बेटियां हैं बड़ी बेटी ज़ियाना कायनात ने कोलंबिया विश्वविद्यालय में शिक्षा पाई, टॉप किया। और अब अमेरिका के सिएटल में फेस बुक में ग्रुप मैनेजर है। छोटी बेटी अनमता सल्तनत ने मुम्बई के सेंट जेवियर्स कॉलेज से मार्केटिंग में मास्टर्स किया है और एक एनएमसी में ग्रुप मैनेजर हैं। पर वो शीघ्र ही अमेरिका की मैरी लैंड यूनिवर्सिटी में अतिरिक्त पढाई के लिए जाने वाली हैं।
मंज़र साहब को बेटियों से इतना लगाव है कि उन्होंने बेटियों को लेकर कई शेर कहे हैं –
बेटियों के लिए भी हाथ उठाओ मंज़र,
सिर्फ अल्लाह से बेटे नहीं मांगा करते।
बेटियों से संबंधित शायरी की तो उनकी हिंदी में एक पूरी किताब है जो 2016 में छपी है। अब ज़िक्र चला है तो देख लें कि मंज़र साहब ने बहू, बहन, मां पर कैसे कैसे शेर कहे हैं। मुलाहिजा हो –
फिर बहू जलाने का हक तुम्हें पहुंचता है,
पहले अपने आंगन में बेटियां जला देना।याद आ जाती है परदेस गई बहनों की,
झुंड चिड़ियों का जब आंगन में नजर आता है।ये माएं चलती हैं बच्चों के पांव से जैसे,
उधर ही जाएंगी बच्चा जिधर भी जाएगा।
मंज़र भोपाली साहब की शायरी की एक विशेषता और भी है कि उन्होंने इस्लामी पौराणिक प्रसंगों, प्रतीकों को नए अथवा वर्तमान संदर्भों में प्रयोग किया है। इससे जिज्ञासु श्रोताओं, पाठकों को नई जानकारियां मिलती हैं। जैसे उनका शेर है –
हमारी जेब से जब भी कलम निकलता है।
सियाह शब के यजीदों का दम निकलता है।
यहां यजीद प्रतीक है अधर्म, असत्य, अत्याचार, व्यभिचार, क्रूरता का। यजीद उस दौर का शासक था और कर्बला की जंग का सबसे बड़ा खलनायक। कर्बला में यह जंग सत्य और असत्य, धर्म और अधर्म को लेकर हज़रत मोहम्मद के नवासे इमाम हुसैन से हुई थी जिसमें इमाम हुसैन उनके दोस्त, भाई, भतीजे, बेटे तीन दिन के भूखे प्यासे शहीद हुए थे। इनकी शहादत से जीत सत्य और धर्म की हुई थी। इन्हीं संदर्भों में कर्बला को प्रतीक बना कर उनके दो शेर ये भी मुलाहिजा करें –
तुम अपनी दौलतो ताक़त पे नाज़ मत करना,
कि अबकी बार भी ये कर्बला हमारी है।कर्बला नहीं लेकिन झूठ और सदाकद में,
कल भी जंग जारी थी अब भी जंग जारी है ।
एक शेर और देखें –
बनेगा दोस्तों दरिया में रास्ता कैसे,
तुम्हारे पास तुम्हारा असा तो है ही नहीं।
असा एक चमत्कारी डंडा था जो पैग़म्बर हज़रत मूसा के पास था। मूसा ने उसे समन्दर में फेंका तो पानी के बीच से रास्ता बन गया था। मूसा और उनके समर्थक उस पर चल कर पार हो गए थे। पर जब उनका पीछा करता हुआ उस दौर का अधर्मी शासक फिरौन अपने अमले के साथ उस पर से गुजरने लगा तो डूब गया। यानि रास्ता ख़त्म हो गया और समुद्र पूर्ववत हो गया।
इस्लामी इतिहास के एक प्रसंग को उन्होंने कई जगह प्रयोग किया है। इस संबंध में एक शेर देखें –
मौत से जो डर जाए ज़िन्दगी नहीं मिलती,
जब भी जीतना चाहो कश्तियां जला देना।
कश्तियां जला देना आखिरी दम तक जूझने का प्रतीक अथवा मुहावरा बन गया है। ये वाकया सन 711 ईसवी का है। मिस्र के एक जंगजू कमांडर तारिक़ बिन जियाद ने सिर्फ बीस हजार सैनिक लेकर यूरोपियन देश स्पेन की एक लाख की सेना को हरा कर स्पेन पर कब्ज़ा कर लिया था। तब स्पेन का नाम लाइबेरियन था। वो अपने सैनिकों को जल मार्ग से कश्तियों में लेकर आया था और स्पेन के तट पर पहुंचते ही उसने कश्तियां जलवा दीं थीं ताकि वापसी की कोई गुंजाइश ना रहे। अतः जीतने या मरने के अलावा कोई विकल्प नहीं रहा था। उसी ने इसे अस्फानिया नाम दिया था जो बाद में स्पेन हो गया।
उनकी शायरी बहुत सब्जेक्टिव है। जैसे ख़ुद्दारी, क्रांति, मोटीवेशन सांप्रदायिक सद्भाव, उम्मीद यानि पॉजिटिविटी, देश प्रेम ख़ुद्दारी दर्शाते उनके दो शेर मुलाहिजा हों –
हम वो राही हैं लिए फिरते हैं सिर पर सूरज,
हम कभी पेड़ों से साया नहीं मांगा करते।
हमको आता है नई राह बनाने का हुनर,
हम पहाड़ों से भी रस्ता नहीं मांगा करते।
उनके शेरों में मौजूद क्रांति पर गौर फरमाइए –
ऊंचे ऊंचे नामों की तख्तियां जला देना।
ज़ुल्म करने वालों की बस्तियां जला देना।
दरबदर भटकना क्या दफ्तरों के जंगल में,
बेलचे उठा लेना डिग्रियां जला देना।
उनके शेरों में सकारात्मकता के साथ चुनौती और आत्मविश्वास के दर्शन भी कर लीजिए –
शबे गम में सुनहरे दिन से ताबीरें बनाते हैं।
कि हम ज़ख्मों से मुस्तकबिल की तस्वीरें बनाते हैं।
हमारे सिर फिरे जज़्बात कैदी बन नहीं सकते
हवाओं के लिए क्यों आप ज़ंजीरें बनाते हैं।
यकीं मुझको है बाज़ी जीतने का फतह मेरी है,
मैं गुलदस्ते बनाता हूं वो शमशीरें बनाते हैं।
इश्क़ और सियासत शायरी के खास विषय हैं। उन्होंने दोनों विषयों को बहुत सलीके और हुनरमंदी से शेरो में पिरोया है पर उनके इस तरह के बेहतरीन अशआर पढ़ने से पहले आइए उनकी किताबों के बारे में जान लें।
1990 में उनका पहला शेरी मजमुआ यानि ग़ज़ल संग्रह आया- ये सदी हमारी है। इसी में वो मशहूर ग़ज़ल है जिसका शेर हमने शुरू में इस्तेमाल किया है – कह दो मीर- ओ- गालिब से। 1992 में कराची से एक शेरी मजमुआ शाया यानि प्रकाशित हुआ – ज़िन्दगी । कुछ परिवर्तन के साथ ये ग़ज़ल संग्रह भारत में भी छपा। 1996 में एक संग्रह आया – लहू रंग मौसम। ये भारत पाक दोनों देशों में एक साथ छपा। सन 2000 में एक किताब आ – मंज़र एक बुलंदी पर। ये एक तरह से उनके व्यक्तित्व कृतित्व पर है। 2006 में भारत पाक दोनों देशों से शाया हुआ शेरी मजमुआ- उदास क्यों हो। 2009 में- लावा, दोनों देशों से प्रकाशित हुआ। 2011 में जो संग्रह आया- ज़माने के लिए, वो हिंदी, उर्दू, इंग्लिश (रोमन) में छपा। 2012 में दोनों देशों यानि भारत पाक से शेरी मजमुआ शाया हुआ – हासिल। 2013 में उर्दू में- तिशनगी और 2016 में हिन्दी में- तावीज। 2016 में ही पुस्तक – बेटियों के लिए – आ।
2016 में ही एक और महत्वपूर्ण किताब आ – साये में चले आओ। इसमें दुनिया भर के एक हज़ार शायरों के पेड़ पौधों से संबंधित अशआर हैं। ये एक तरह से रिसर्च वर्क है जो मंज़र साहब ने किया है। इसके पीछे एक क्रिएटीविटी है। मंज़र साहब को प्रकृति से बहुत प्रेम है और इसी के चलते कोई सोलह साल पहले उन्होंने अपने फार्म हाउस में डेढ़ हज़ार पेड़ लगाए थे जो अब खूब फल दे रहे हैं। उन्होंने अपने स्तर पर वृक्षारोपण और वृक्ष संरक्षण अभियान भी चलाया है। वो हमेशा क़ौमी एकता , सांप्रदायिक सद्भाव, की बात करते हैं। उनका कहना है कि नफ़रत शब्द उनकी डिक्शनरी में है ही नहीं । तो अब मंज़र भोपाली साहब के बहुत मकबूल यानि लोकप्रिय शेर मुलाहिजा करें –
सितामगरों का है फरमान घर भी जाएगा।
अगर मैं झूठ न बोला तो सर भी जाएगा।
बनाइए न किसी के लिए भी ताज महल,
हुनर दिखाया तो दस्ते हुनर भी जाएगा।तुम्हारी बात कहां घाव भरने वाली है।
यही कटार तो दिल में उतारने वाली है।झूठ वो बोले तो सच्चाई नज़र आती है।
उसके जुल्मों में मसीहाई नज़र आती है।।
तुम किनारे पे हो क्या जानो समन्दर क्या है,
डूबने वाले को गहराई नज़र आती है।जो चाहे कीजिए कोई सज़ा तो है ही नहीं।
ज़माना सोच रहा है ख़ुदा तो है ही नहीं।।
सब आसमान से उतरे हुए फरिश्ते हैं ,
सियासी लोगों में कोई बुरा तो है ही नहीं।हुज़ूर बन्द करो खेल ये मदारी का।
गुरूर तुमको ना ले डूबे शहरयारी का।।
गुज़र चुका है ज़माना वो इनकिसारी का।
कि अब मिज़ाज बना लीजिए शिकारी का।
हम एहतरामे मोहब्बत में सर झुकाते हैं,
ग़लत निकाल न मफहूम ख़ाकसारी का।सहर ने अंधी गाली की तरफ नहीं देखा।
जिसे तलब थी उसी की तरफ नहीं देखा।।
जो आइने से मिला आइने पे झुंझलाया,
किसी ने अपनी कमी की तरफ नही देखा।रहनुमा ये कहते हैं तीरगी से मत डरिए,
मुल्क में जलाने को बस्तियां बहुत सी हैं।
रूठने से क्या हासिल दोनो माजरत कर लें,
आपमें भी मुझ में भी खामियां बहुत सी हैं।वो सारे माजी के कर्जे चुकाना चाहता है।
इधर ये दिल कि मोहब्बत निभाना चाहता है।
मुझे तो प्यार के रिश्ते पे है यक़ीन बहुत,
मेरा पड़ोसी मगर खूं बहाना चाहता है।चांद चेहरा यहीं पर छुपा लीजिए।
मेरे सीने को आंचल बना लीजिए।
मुझको गूगल ने उनका पता यूं दिया,
दिल में रहते हैं खुद ही बुला लीजिए।ज़ुल्फो रुख के साए में ज़िन्दगी गुजारी है।
धूप भी हमारी है छांव भी हमारी है।ताकतें तुम्हारी हैं और खुदा हमारा है।
अक्स पर न इतराओ आइना हमारा है।
उम्र भर तो कोई भी जंग लड़ नहीं सकता,
तुम भी टूट जाओगे तजरबा हमारा है।जिसको भी आग लगाने का हुनर आता है।
वो ही ऐवाने सियासत में नज़र आता है।सच कहूं मुझ को ये उन्वान बुरा लगता है।
ज़ुल्म सहता हुआ इंसान बुरा लगता है।।
किस क़दर हो गई मसरूफ ये दुनिया अपनी,
एक दिन ठहरे तो मेहमान बुरा लगता है।
मंज़र भोपाली साहब के गीत भी बहुत पसंद किए जाते हैं। उनके गीतों में देश प्रेम और यहां की संस्कृति मुखर हुई है। इंटरव्यू आधारित ये लेख लम्बा होता जा रहा है। इस लिए तीन गीतों के मुखड़े यहां पढ़ लीजिए। ये आप के दिल में रस घोल देगा –
तुम भी पियो हम भी पिएं रब की मेहरबानी।
प्यार के कटोरे में गंगा का पानी।ये धरती सोने का कंगन, ये धरती चांदी का दर्पन
ये धरती मस्जिद का आंगन, ये धरती संतों का चंदन
ये किसने शूल बो दिएभारत माता के टुकड़े करने की क्यों तय्यारी है
देश के गद्दारों से कह दो धरती जान से प्यारी है।
– नवोदित